शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

राजनीति की शुचिता को बरबाद कर रहे है राजनीतिक दल

 


राजनीति की शुचिता है कि सभी राजनीतिक दल, सभी धर्म सम्प्रदाय के लोगो से समान व्यवहार करें तथा सभी  को साथ लेकर चले। लेकिन देश की राजनीति अब शुचिता वाली नही रही है। सभी राजनीतिक दल अपने अपने वोट बैंक को बढ़ाने के चक्कर मे राजनीति शुचिता को भुला बैठे है। सबको साथ लेने की बजाय हर राजनीतिक दल किसी धर्म जाती विशेष का नुमाइंदा बनकर इन दिनों सामने आने लगा है।


पहले राजनीतिक दल हर धर्म और सम्प्रदाय के धर्मगुरुओं से मिलकर, उनसे उनके धर्म और सम्प्रदाय विकास  के लिए क्या किया जा सकता है उसका फीड बैक लिया करते थे ताकि उनका भी विकास हो सके।


 वर्तमान में अधिकांश राजनीतिक दल किसी विशेष धर्म और जातियों से जुड़े दिखाई देते है,जिससे न केवल देश का साम्प्रदायिक सद्भाव छिन्न भिन्न हो रहा है बल्कि धर्म और जातियों में वैमनस्यता भी बढ़ती जा रही है। राजनीतिक पार्टियों में भाजपा जहां हिंदुओं की पार्टी होने का ठप्पा अपने पर लगा चुकी है तो कांग्रेस को मुसलमानों का विशेष ख्याल रखने वाली पार्टी माना जाने लगा है। वहीं कुछ क्षेत्रीय पार्टियों ने एक अलग ही रास्ता चुना लिया है उन्होंने अपने अपने क्षेत्र के हिसाब से जातियों का चयन कर लिया है जहां वे उन जातियों के लोगों को उस जाति के  खैर ख्वाह वाली पार्टी बताते नही अघाती। उत्तर प्रदेश में यादवों को ,मुलायम अखिलेश की पार्टी अपनी पार्टी लगती है तो अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगो को बहन मायावती की पार्टी अपनी लगती है। बहुजन समाज पार्टी को तो पूरे देश के अनुसूचित जाति और जनजाति का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी माना जाने लगा है। यही नही राजनीति करने वाले लोगो ने राजनीतिक शुचिता को इतना तहस नहस किया है कि वे अपने राजनीतिक फायदे के लिए देश के लोगो को क्षेत्रीयता में बांटने में भी कोई कोर कसर नही छोड़ी। महाराष्ट्र में शिव सेना ने मराठों को उनका खेर ख्वाह बताते हुए तो असम में असम गण परिषद ने असमियों को अपना बताया। इसी तरह अलग अलग राज्यों में क्षेत्रवाद व जातिवादी आधार पर राजनीतिक पार्टियों का गठन कर राजनीतिक शुचिता को तार तार किया गया। 


जबकि राजनीतिक शुचिता को बनाए रखने के लिए ये जरूरी है कि सभी राजनीतिक दल जनता के सामने ये तस्वीर पेश करे कि वे किसी विशेष जाति धर्म, सम्प्रदाय के प्रति नही, सभी लोगो के विकास के लिए देश की बागडोर संभालना चाहते है। देश की जनता को भी ऐसे जातियों,धर्मो और सम्प्रदायों की तरफ झुकी पार्टियों को नकारना चाहिए। जाति धर्म और सम्प्रदाय से पहले देश को रखना होगा, जब देश का विकास होगा तो सभी जातियां,सभी धर्म और सभी सम्प्रदाय स्वतः ही विकास करेंगे। और अगर जनता को लगे कि कोई राजनीतिक दल किसी जाति विशेष,धर्म विशेष या सम्प्रदाय विशेष के प्रति ही समर्पित है और दूसरे धर्म या जाति के प्रति उदासीन है तो उसे एकमत से नकार दिया जाना चाहिए। अब तो जनता के पास "नोटा" जैसा ऐसा बटन भी है जिसे दबाकर वो सभी पार्टियों को सबक सिखा सकती है। हां इतना जरूर हैं कि जो राजनीतिक पार्टी जिस धर्म जाति का पक्ष लेगी उस धर्म व जाति के वोट उसे मिलेंगे लेकिन अगर अन्य सभी जातियों और धर्मो के लोग एकमत होकर ऐसी पार्टी के खिलाफ नोटा का प्रयोग करेंगे तो ऐसी पार्टियों को सबक मिल जाएगा और फिर भविष्य में ऐसे राजनीतिक दलों को अपनी रणनीति को बदलने को मजबूर होना पड़ेगा। आपको याद होगा उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ने एससी एसटी वोटों के खातिर एक बार नारा दिया था  " तिलक ,तराजू और तलवार,इनको मारो जूते चार" ।  लेकिन इस नारे से वे इस एससी,एसटी वर्ग की चहेती तो बन गई लेकिन जल्दी ही उन्हें समझ आ गया कि इससे सत्ता के गलियारे तक नही पहुँचा जा सकता और जब दूसरी बार चुनाव हुए तो उन्होंने ब्राह्मण,बनियों और राजपूतों को बड़ी संख्या में अपनी पार्टी का टिकट देकर पिछली गलती का प्रायश्चित किया। 


राजनीतिक शुचिता को बनाए रखने के लिए राजनीतिक दलों को, जनता एकमत होकर मजबूर कर सकती है। आवश्यकता है तो केवल जनता की इच्छा शक्ति की है। अगर ऐसा हो जाए तो कोई  भी राजनैतिक दल,किसी जाति,धर्म या सम्प्रदाय का खेर ख्वाह होने का दावा करने से बचेगा। राजनीतिक दल भी राजनीतिक शुचिता के लिए न केवल जाति,धर्म और सम्प्रदाय विशेष का होने या प्रचारित होने का दावा करने से बचे बल्कि वे सभी वर्गों के लिए समान भाव से कार्य करने की शपथ ले। तभी ये देश जातिगत, धार्मिक  तथा साम्प्रदायिक रूप से  एक हो सकेगा और सभी के हित सध सकेंगे।

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