रविवार, 18 जुलाई 2021

पेट्रोल डीजल में केंद्र और राज्य दोनों कमा रहे

 


पेट्रोल और डीजल के दामों ने आम आदमी को परेशान कर रखा है। इनकी कीमतें बढ़ने से हर चीजों के दाम बढ़ते है क्योंकि  वस्तुओं का एक जगह से दूसरी जगह  रेलों ट्रकों और मालवाहक जहाजों, वायुयान आदि से परिवहन होता है। इनकी कीमतें बढ़ने से परिवहन लागत बढ़ती है तो वस्तुओं के दाम बढ़ने स्वाभाविक ही है।

जनता परेशान है लेकिन केंद्र की सरकार और राज्य सरकारें दोनो ही  एक दूसरे पर आरोप लगा कर जनता को गुमराह कर रही है। केंद्र का कहना है कि राज्य सरकारें अपना वेट कम करके जनता को पेट्रोल और डीजल सस्ता दे सकती है जबकि राज्य सरकारें कहती है कि केंद्र सरकार एक्साइज ड्यूटी कम करके जनता को राहत दे सकती है।

आप जानते है दोनो ही सरकारें एक दूसरे पर दोषारोपण कर जनता से कमाई कर रही है। सरकारें समझती है कि जनता को किस तरह गुमराह कर राजस्व वसूला जा सकता है।

पेट्रोल की वास्तविक कीमत है 33.45 रुपए प्रति लीटर

क्या आप जानते है वास्तव में पेट्रोल डीजल की कितनी है? पेट्रोल की वास्तविक कीमत 33 रुपए 45 पैसे प्रति लीटर है जी हां सिर्फ 33 रुपए 45 पैसे । इस पर केंद्र सरकार एक्साइज ड्यूटी के नाम पर 120 फीसदी  वसूल रही है यानी तेल की वास्तविक कीमत से भी ज्यादा और ये राशि है 40 रुपए 13 पैसे जबकि तेल की कीमत ही 33 रूपे 45 पैसे है। जो सरकार  किसी चीज की वास्तविक कीमत से भी ज्यादा उसका टैक्स वसूले क्या वो लोकतांत्रिक सरकार होती है या फिर व्यापारिक मानसिकता वाली सरकार। जिस सरकार को देश की जनता ने  अपनी भलाई के लिए चुना वही सरकार जनता का शोषण करने लगे तो उसे लोकतांत्रिक सरकार कहलाने का अधिकार है और भी ऐसे समय जब कोरोना के कारण लोगों की आमदनी कम हो गई है ,लोगो के रोजगार छीन गए है, उनकी जमा पूंजी खत्म हो गई है ऐसे में जनता को राहत देने की बजाय उसका शोषण तो कोई  व्यापारी मानसिकता वाली सरकार ही कर सकती है। जिस तरह एक व्यापारी का उद्देश्य लाभ कमाना होता है उसे किसी से कोई लेना देना नही होता सिर्फ उसे अपने लाभ से मतलब होता है। आज केंद्र और राज्य सरकारें घड़ियाली आंसू तो बहा रही है लेकिन अपने खजाने को भरने से नहीं चूक रही।

राज्य सरकारें भी राजस्व की फसल काटने में पीछे नहीं

राज्य सरकारें भी कम नही है। वे अपनी राज्य की जनता को ये कहकर गुमराह कर रही है कि केंद्र ने पेट्रोल डीजल महंगा कर दिया लेकिन वे ये सत्य नहीं बता रही कि केंद्र की आड़ में वे भी  वेट के रूप में  फसल काट रही है और आरोप केंद्र पर थोप रही है। अलग अलग राज्यों में अलग अलग वेट राशि है हम यहां राजस्थान का उदाहरण पेश कर रहे है। इस उदाहरण से मेरा उद्देश्य राज्यों की मुनाफा वसूली की मानसिकता की ओर आपका ध्यान खींचना है जिसमे कोई राज्य सरकार पीछे नही है। हां कुछ राज्य सरकारें कम वेट वसुल रही है तो कुछ ज्यादा लेकिन जनता का शोषण करने में कोई राज्य सरकार भी कम नही है।

राजस्थान सरकार वेट के नाम पर पेट्रोल की वास्तविक कीमत का 93 फीसदी वसूल रही है। यानी पेट्रोल की कीमत है 35 रुपए 45 पैसे प्रति लीटर तो राजस्थान सरकार उस पर वेट ले रही  है 31 रुपए 10 पैसे प्रति लीटर। इस तरह राज्य सरकारें भी इस बहती गंगा में हाथ धोने में पीछे नहीं है और जिन राज्यों में बीजेपी की सरकारें नहीं है वहां की सरकारें केंद्र की बीजेपी की सरकार को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रही है। लेकिन ये आंकड़े बताते है कि हुजूर आप भी केंद्र से कम नही है जनता का शोषण करने में।

इसके अलावा पेट्रोल पंप डिलरो को मूल कीमत  35.45 का करीब 10 फीसदी कमीशन (वास्तविक 9.93%) यानि  3.32 रूपे । रोड सेस के नाम पर भी 1.75 रूपे प्रति लीटर लिए जा  रहे है, जो पेट्रोल की मूल कीमत का 5.23% है। ये रोड सेस भी केंद्र और राज्य दोनो सरकारों को मिलता है अगर इसे दोनो सरकारों के राजस्व में जोड़ा जाए तो ये केंद्र और राज्य दोनो की राजस्व वसूली में बढ़ोतरी ही करता है। यही नहीं परिवहन के नाम पर  उपभोक्ताओं से अलग अलग राशि भी अलग से वसूली जाती है जो दूरी के अनुसार कम या ज्यादा हो सकती है। राजस्थान के बीकानेर में ये 1.25 रुपए प्रति लीटर है जो मूल पेट्रोल की कीमत का 3.74% है। इस तरह इस शहर में पेट्रोल की कीमत 111 रुपए प्रति लीटर है। आपके शहर और राज्य में वेट और परिवहन की राशि कम ज्यादा होने पर पेट्रोल की कीमत कम ज्यादा हो सकती है। अगर आप अन्य राज्य से है तो अपने राज्य में इन पर लगने वाले वेट और परिवहन चार्ज की राशि के अनुसार इनकी कीमत जान सकते है। लेकिन एक्साइज,  रोड सेस, डीलर कमीशन में कोई अंतर नही है ये सभी जगह समान है।

लोकतांत्रिक सरकारें इस तरह दे सकती है जनता को राहत

एक तरफ तो सरकारें मुफाखोरी करने वालों के खिलाफ कार्यवाही कर जनता को ये संदेश देती है कि वो जनता हितैषी है दूसरी तरफ ये ही सरकारें मुनाफाखोरियों को ही मात दे रही है।  केंद्र  पेट्रोल की मूल कीमत की 120 फीसदी एक्साइज ड्यूटी लेकर और राज्य सरकारें 93 फीसदी वेट ( ये अलग अलग राज्यों में अलग अलग हो सकता है  ये राजस्थान के संदर्भ में है।) वसूल कर मुनाफाखोरियो को भी पीछे छोड़ रही है। डिलरो को कमीशन 10 फीसदी और खुद सरकारों का कमीशन 223 फीसदी( जिसमें 120 फीसदी केंद्र और 93 फीसदी राज्य के शामिल है) ये शोषण नहीं तो क्या है? फिर साहूकारी व्यवस्था और लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्या फर्क रहा?  सरकारें ही जब अपनी जनता से  200-200 फीसदी से ज्यादा टैक्स वसूलेगी तो फिर व्यापारी और साहूकार को क्या दोष देना।

अगर वास्तव में लोकतांत्रिक सरकारें जनता को राहत देना चाहती है, महंगाई पर अंकुश लगाना चाहती है तो उन्हें अपनी मुनाफाखोरी कम करनी होगी। एक वाजिब स्थिति तक ही राजस्व वसूली करनी होगी।आश्चर्य की बात देखिए कि आयकर में भी अधिकतम 30 फीसदी कर वसूलने की व्यवस्था है लेकिन पेट्रोल डीजल में मामले में तो सरकारों ने आयकर व्यवस्था को भी पीछे छोड़ दिया है। वे 120 फीसदी और 93 फीसदी टैक्स जनता से वसूल रही है। केंद्र और राज्य सरकारों को एक सीमा तक टैक्स लेना चाहिए ताकि जनता को महंगाई से बचाया जा सकें। केंद्र और राज्य सरकारें अगर 15 फीसदी तक ही राजस्व पेट्रोल डीजल से वसूली का करने का लक्ष्य निर्धारित करें तो आम जनता को बहुत ही सस्ते ये दोनो चीजे मिल सकती है ये ही नही इससे महंगाई पर भी लगाम लग सकती है।


वर्तमान कीमतों पर 50 रूपे लीटर मिल सकता है पेट्रोल

आइए देखते है कि अगर केंद्र और राज्य सरकारें अपना राजस्व आय का लक्ष्य इन दोनों चीजों से 15% निर्धारित कर दे तो जनता को वर्तमान में कितने में मिल सके है।

 पेट्रोल का उदाहरण लेते है

पेट्रोल की मूल कीमत 33.45 रुपए

एक्साइज15%           5.00

वेट15%                     5.00

डीलर कमीशन            3.32

रोड सेस                     1.75

परिवहन                     1.25

कुल                           49.77

यानि केंद्र और राज्य चाहे तो देश की जनता को 50 रुपए लीटर पेट्रोल डीजल उपलब्ध करा सकती है यानि वर्तमान  पेट्रोल डीजल की कीमतें आधी से भी कम  की जा सकती है। अगर अंतराष्ट्रीय कीमतों से भी इसे जोड़ा जाए तो भी मूल कीमतें बढ़ने पर ही कीमतें बढ़ सकती हैं और कम होने पर इससे भी कम दामों पर जनता को पेट्रोल डीजल मिल सकते है। इससे महंगाई पर भी लगाम लगाई जा सकती है, रेल बस और हवाई यात्राओं के किराए कम हो सकते है इससे जनता को बड़ी राहत  मिल सकती है।

लेकिन केंद्र और राज्य की दोनों ही सरकारें एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप कर राजस्व वसूली पर ही ध्यान दे रही है जनता के दुख दर्द को दूर करने की दोनों की ही मानसिकता नहीं है । जनता को इसे समझना होगा और मांग करनी होगी कि सरकारें खुद मुनाफाखौरी नहीं कर एक निश्चित प्रतिशत तक ही इन दोनो चीजों पर एक्साइज और वेट  वसूली निर्धारित करें और फिर जनता को ज्ञान दे कि अंतराष्ट्रीय बाजार की कीमतों के अनुसार इनके दाम घट बढ़ रहे है। वर्तमान में ये जनता को मूर्ख बना रहे है कि अंतराष्ट्रीय बाजार की वजह से इनके दाम बढ़ रहे है। जागरूक जनता को होना पड़ेगा तभी सरकारों की आंखे खुलेगी अन्यथा शोषण पहले साहूकार करते थे और अब सरकारें कर रही है। कोई फर्क नही है इस मामले में।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

राजनीति की शुचिता को बरबाद कर रहे है राजनीतिक दल

 


राजनीति की शुचिता है कि सभी राजनीतिक दल, सभी धर्म सम्प्रदाय के लोगो से समान व्यवहार करें तथा सभी  को साथ लेकर चले। लेकिन देश की राजनीति अब शुचिता वाली नही रही है। सभी राजनीतिक दल अपने अपने वोट बैंक को बढ़ाने के चक्कर मे राजनीति शुचिता को भुला बैठे है। सबको साथ लेने की बजाय हर राजनीतिक दल किसी धर्म जाती विशेष का नुमाइंदा बनकर इन दिनों सामने आने लगा है।


पहले राजनीतिक दल हर धर्म और सम्प्रदाय के धर्मगुरुओं से मिलकर, उनसे उनके धर्म और सम्प्रदाय विकास  के लिए क्या किया जा सकता है उसका फीड बैक लिया करते थे ताकि उनका भी विकास हो सके।


 वर्तमान में अधिकांश राजनीतिक दल किसी विशेष धर्म और जातियों से जुड़े दिखाई देते है,जिससे न केवल देश का साम्प्रदायिक सद्भाव छिन्न भिन्न हो रहा है बल्कि धर्म और जातियों में वैमनस्यता भी बढ़ती जा रही है। राजनीतिक पार्टियों में भाजपा जहां हिंदुओं की पार्टी होने का ठप्पा अपने पर लगा चुकी है तो कांग्रेस को मुसलमानों का विशेष ख्याल रखने वाली पार्टी माना जाने लगा है। वहीं कुछ क्षेत्रीय पार्टियों ने एक अलग ही रास्ता चुना लिया है उन्होंने अपने अपने क्षेत्र के हिसाब से जातियों का चयन कर लिया है जहां वे उन जातियों के लोगों को उस जाति के  खैर ख्वाह वाली पार्टी बताते नही अघाती। उत्तर प्रदेश में यादवों को ,मुलायम अखिलेश की पार्टी अपनी पार्टी लगती है तो अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगो को बहन मायावती की पार्टी अपनी लगती है। बहुजन समाज पार्टी को तो पूरे देश के अनुसूचित जाति और जनजाति का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी माना जाने लगा है। यही नही राजनीति करने वाले लोगो ने राजनीतिक शुचिता को इतना तहस नहस किया है कि वे अपने राजनीतिक फायदे के लिए देश के लोगो को क्षेत्रीयता में बांटने में भी कोई कोर कसर नही छोड़ी। महाराष्ट्र में शिव सेना ने मराठों को उनका खेर ख्वाह बताते हुए तो असम में असम गण परिषद ने असमियों को अपना बताया। इसी तरह अलग अलग राज्यों में क्षेत्रवाद व जातिवादी आधार पर राजनीतिक पार्टियों का गठन कर राजनीतिक शुचिता को तार तार किया गया। 


जबकि राजनीतिक शुचिता को बनाए रखने के लिए ये जरूरी है कि सभी राजनीतिक दल जनता के सामने ये तस्वीर पेश करे कि वे किसी विशेष जाति धर्म, सम्प्रदाय के प्रति नही, सभी लोगो के विकास के लिए देश की बागडोर संभालना चाहते है। देश की जनता को भी ऐसे जातियों,धर्मो और सम्प्रदायों की तरफ झुकी पार्टियों को नकारना चाहिए। जाति धर्म और सम्प्रदाय से पहले देश को रखना होगा, जब देश का विकास होगा तो सभी जातियां,सभी धर्म और सभी सम्प्रदाय स्वतः ही विकास करेंगे। और अगर जनता को लगे कि कोई राजनीतिक दल किसी जाति विशेष,धर्म विशेष या सम्प्रदाय विशेष के प्रति ही समर्पित है और दूसरे धर्म या जाति के प्रति उदासीन है तो उसे एकमत से नकार दिया जाना चाहिए। अब तो जनता के पास "नोटा" जैसा ऐसा बटन भी है जिसे दबाकर वो सभी पार्टियों को सबक सिखा सकती है। हां इतना जरूर हैं कि जो राजनीतिक पार्टी जिस धर्म जाति का पक्ष लेगी उस धर्म व जाति के वोट उसे मिलेंगे लेकिन अगर अन्य सभी जातियों और धर्मो के लोग एकमत होकर ऐसी पार्टी के खिलाफ नोटा का प्रयोग करेंगे तो ऐसी पार्टियों को सबक मिल जाएगा और फिर भविष्य में ऐसे राजनीतिक दलों को अपनी रणनीति को बदलने को मजबूर होना पड़ेगा। आपको याद होगा उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ने एससी एसटी वोटों के खातिर एक बार नारा दिया था  " तिलक ,तराजू और तलवार,इनको मारो जूते चार" ।  लेकिन इस नारे से वे इस एससी,एसटी वर्ग की चहेती तो बन गई लेकिन जल्दी ही उन्हें समझ आ गया कि इससे सत्ता के गलियारे तक नही पहुँचा जा सकता और जब दूसरी बार चुनाव हुए तो उन्होंने ब्राह्मण,बनियों और राजपूतों को बड़ी संख्या में अपनी पार्टी का टिकट देकर पिछली गलती का प्रायश्चित किया। 


राजनीतिक शुचिता को बनाए रखने के लिए राजनीतिक दलों को, जनता एकमत होकर मजबूर कर सकती है। आवश्यकता है तो केवल जनता की इच्छा शक्ति की है। अगर ऐसा हो जाए तो कोई  भी राजनैतिक दल,किसी जाति,धर्म या सम्प्रदाय का खेर ख्वाह होने का दावा करने से बचेगा। राजनीतिक दल भी राजनीतिक शुचिता के लिए न केवल जाति,धर्म और सम्प्रदाय विशेष का होने या प्रचारित होने का दावा करने से बचे बल्कि वे सभी वर्गों के लिए समान भाव से कार्य करने की शपथ ले। तभी ये देश जातिगत, धार्मिक  तथा साम्प्रदायिक रूप से  एक हो सकेगा और सभी के हित सध सकेंगे।