शनिवार, 14 नवंबर 2020

बिना पटाखों की दीपावली, घी के दिए जलाकर करें वातावरण को शुद्ध

 



अनुभूत करें भगवान राम के अयोध्या लौटने के असली दिन को


दीपावली पर पटाखें न फोड़े और दीपावली मनाएं , कितना अजीब लगता होगा ये आज से 50-60 वर्षो पहले कहना। उस समय लोग ये कहने वाले को कितना मूर्ख समझते होंगे, उसका कितना मजाक बनता होगा।


 लेकिन 2020 की 14 नवम्बर की दीपावली वास्तव में बिना पटाखों वाली दीपावली है। सरकार ने भी पटाखों को बेचने और चलाने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है। किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि कभी दीपावली भी बिना पटाखों के मनानी पड़ सकती है।


कोरोना वायरस ने जब मार्च में  होली पर अपनी उपस्थिति दर्ज की थी तो किसी ने सोचा नहीं था कि  ये बीमारी इतनी लंबी चलेगी और दीपावली के पटाखे चलाने की परम्परा को भी ये डस लेगी। जी हां ये डसना ही है । दीपावली का मतलब ही पटाखों का पर्याय होता है लेकिन कोरोना ने इस मतलब को बदल दिया है। हालांकि पिछले काफी वर्षो से पटाखों से  बढ़ते वायु प्रदूषण  से सरकारें  लोगों को आगाह करती आईं है और अपील करती रही है कि वे केएम से कम पटाखे जलाएं ताकि वायु प्रदूषण कम हो। दिल्ली में तो बाकायदा पटाखों का समय निर्धारित कर दिया गया कि निर्धारित समय के बाद पटाखे ऩ छोड़े जाएं लेकिन पूर्णतः प्रतिबन्ध नहीं लगाया। लेकिन इस बार तो कोरोना वायरस के कारण पटाखों पर बाकायदा पूर्णतः प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। 


सरकारों ने पटाखें बेचने के लाइसेंस नहीं दिए है और जिनके पास स्थाई लाइसेंस थे उनके लाइसेंस भी रद्द कर दिए है। और तो और अगर आप सोच रहे है कि कोई बात नहीं बेचने पर प्रतिबन्ध लगाया है सरकार ने ,तो हमारे पास तो पहले से ही है ,एचएम उन्हें छोड़कर अपनी दीपावली पटाखों वाली मना लेंगे । तो जनाब ये भी नहीं कर सकेंगे इस बार आप। आपके पटाखे आपकी अलमारी को शोभा ही बढ़ा सकते है या फिर आप उन्हें देख कर आभास कर सकते है क्योंकि आप उन्हें छोड़ नहीं सकते। सरकार ने पटाखें बेचने के साथ साथ छोड़ने पर भी प्रतिबंध लगा दिया है। 


कोरोना ने लगाई लगाम


कोरोना ने पटाखों पर लगाम लगा दी है। क्योंकि पटाखों से वातावरण में प्रदूषण बढ़ जाता है और ये प्रदूषण कोरोना मरीजों को श्वास की तकलीफ कर सकता है। इस  बीमारी में अधिकाश मौत श्वास की तकलीफ से ही होती है। मरीज के फेफड़े सामान्य श्वास भी लेने में दिक्कत महसूस करते है  और अगर फिर प्रदूषित हवा मिलने से तो जिन मरीजों की स्थिति सामान्य है उनकी पटाखों से प्रदूषित हुई हवा जान लेवा साबित हो सकती है। इसलिए सरकार ने इस बार पटाखों पर पूर्णतः प्रतिबन्ध लगा दिया है।


घी के  दिए जलाकर मनाएं दीपावली


जब भगवान रामचन्द्र जी लंका से जीतकर अयोध्या आए थे तो लोगों ने अपने घरों पर घी के दिए जलाकर खुशियां मनाई थी। उस समय पटाखों का प्रचलन नहीं था। लोगों ने घी और तेल के दिए जलाकर इस त्यौहार को मनाने की शुरुआत की थी आज हजारों साल बाद फिर लोगों को घी और तेल के दिए जलाकर दीपावली मनानी पड़ रही है। हालांकि असली दीपावली तो घी और तेल के दिए जलाकर ही मनाई जाती है लेकिन कालांतर में इसमें पटाखों ने कब अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया पता ही नहीं चला। वर्तमान पीढ़ी तो दीपावली का मतलब ही पटाखों का त्यौहार मानती है। पटाखें नहीं जलाना मतलब अपनी खुशियों को मन मसोस कर दबाना। इसे सरकार का जबरस्ती का थोपा गया आदेश मानना। जबकि वास्तव में असली दीपावली तो घी के दीयो की ही होती है ये आज की जनरेशन जानती ही नहीं।


माटी के दीयों की सुगन्ध, घी की बाती से सरोबार होकर प्रदूषित वातावरण को शुद्ध करने को आतुर



प्रकृति ने खुद ही  भगवान राम के उस दिन अयोध्या लौटने के दिवस को एक बार फिर उसी रूप में मनाने को हमें विवस कर दिया है। देखे,महसूस करे और अनुभव प्राप्त करे, इस बार कि भगवान राम के अयोध्या लौटने के उस दीपावली के दिन भी कुछ ऐसा ही रूप था, जिसमें पटाखों की गूंज नहीं थी लेकिन घी के दीयों की वातावरण को शुद्ध करने वाली सौंधी माटी की सुंगध थीं। आज फिर हजारों वर्षो बाद उसी वातावरण को निर्मित करने का अवसर आ गया है जिसमें एक बार फिर वहीं माटी के दीयों की सुगन्ध घी की बाती से सरोबार होकर प्रदूषित वातावरण को शुद्ध करने, भगवान राम के समय के वातावरण निर्मित करने को आतुर है। उस काल में हम नहीं थे लेकिन उस काल की परिस्थितियां बनाने का एक अवसर हमें प्रकृति ने जरूर दे दिया है जिसे हमें जी कर न केवल वायु प्रदूषण को रोकना है बल्कि देश के करोड़ो लोगों को सांस की तकलीफ से भी बचाना है। अगर इस समय हमनें नहीं सोचा तो एक ही काल रात्रि में ये दीपावली का त्यौहार हजारों लाखों लोगों की जिन्दगी पर तो भारी पड़ेगा ही साथ ही उस काल के वास्तविक अनुभव से भी हमें वंचित कर देगा।


आइए हम सब मिलकर भगवान राम के उस वास्तविक दिन को अनुभूत करें जिस दिन वे अयोध्या लौटे थे और लोगों ने घी के दिए जलाकर वातावरण को शुद्ध बनाया था।


बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

चिराग पासवान पाला बदल सकते है

 बिहार विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव की जन सभाओं में जो भीड़ उमड़ रही है वो बिहार में बदलाव की स्पष्ट कहानी कह रही है। इससे नीतीश के जेडीयू और बीजेपी में बैचैनी बढ़नी स्वाभाविक ही है।

 इस बीच रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान एल जे पी ने एन डी ए से नाता तोड लिया है ये कहकर कि मोदी से कोई बैर नहीं, नीतीश तेरी खैर नहीं। अब तेजस्वी की जन सभाओं में भारी भीड़ ने उनके पिता की भविष्य दृष्टा की झलक उनमें भी दिखाई देती है।

 नीतीश का चिराग के खिलाफ जन सभाओं में जिस तरह बोला जा रहा है वो न केवल चिराग को जे डी यू से दूर कर रहा है बल्कि बीजेपी से भी उन्हें धीरे धीरे दूर करता दिखाई देता है। नीतीश की सभाओं में बीजेपी के नेता भी होते है और उनकी चुप्पी ही एक तरह से नीतीश की कहीं गई बातों में उनकी सहमति मानी जा सकती है और यही वो वजह होगी जो बिहार में चुनाव परिणामों  के बाद परिस्थितियों को बदलने वाली साबित हो सकती है।

जो चिराग अभी अपने को मोदी का हनुमान बता रहे है वे विपरीत परिणाम आते ही मौसम की तरह बदल जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कारण अगर तेजस्वी की आर जे डी और कांग्रेस को बिहार में बहुमत मिलता है तो चिराग बीजेपी नेताओं के, नीतीश की सभाओं में उपस्थित रहते हुए उनके बारे में किए गए प्रलाप को उनकी मौन स्वीकृति बताते हुए बीजेपी से किनारा करने का  बड़ा कारण बता सकते है। वे यहां तक कह सकते है कि वे तो अंत तक कहते रहे कि वे मोदी के हनुमान है लेकिन  बीजेपी ने और मोदी ने नीतीश को मेरे बारे में अनर्गल प्रलाप करने से नहीं रोका इस वजह से इस हनुमान की आस्था टूट गई और वे  इस एलाइंस से नाता तोड़ते है।

चूंकि रामविलास पासवान हमेशा, चाहे किसी की भी सत्ता रही हो वे सत्ता में रहे है इसी वजह से उन्हें  राजनीति का मौसम विज्ञानी भी कहा जाता रहा है, उसी के अनुसरण में  उनके पुत्र चिराग पासवान भी अगर तेजस्वी से हाथ मिला लें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चहिए। वे पाला बदल कर बिहार में सत्ता में आने वाली पार्टी से हाथ मिला ले तो  भी कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए वो चाहे फिर किसी भी दल का क्यों न हो। 

तेजस्वी ने चिराग पासवान के साथ नीतीश के बर्ताव पर बयान देकर ये संकेत भी दे दिया है कि अगर जरूरत पड़ी तो वे चिराग का साथ भी ले सकते है हालांकि उनकी जन सभाओं में उमडती भीड़  ये स्पष्ट संकेत दे रही है कि उनको शायद इसकी ज़रूरत ही न पड़े लेकिन राजनीति में रास्ते खुले रखने पड़ते है न जाने कब किसकी जरूरत पड़ जाएं।

चिराग पासवान ने भी किसी भी तरफ जाने के अपने रास्ते खुले रखे है। अगर जेडीयू और बीजेपी  एलाइंस की सरकार आती भी है तो मोदी के हनुमान को तो  तव्वजों देनी पड़ेगी और अगर नहीं आती है तो बीजेपी नेताओं का उनके बारे में नीतीश की टिप्पणी पर मौन रहना इस हनुमान का मोह भंग होने का एक कारण बनते भी देर नहीं लगेगी। और अगर आरजेडी और कांग्रेस की सरकार आती है तो तेजस्वी ने जो चिराग पासवान के प्रति सहानुभूति चुनावी सभाओं में दर्शाई है वे नजदीकियो का बड़ा कारण बन सकती है। इससे चिराग के लिए सत्ता के नजदीक रहना आसान ही रहेगा। हांलांकि ये सब उनकी पार्टी की विधानसभा में लाई गई सीटों पर निर्भर करेगा कि वे कितने पावरफुल होंगे। अपने पिता की मृत्यु की सहानुभूति उन्हें कितनी मिलती है ये भी एक फेक्टर होगा। लेकिन ये तय है कि सत्ता चाहे किसी की आए चिराग पासवान राज्य या केंद्र की सत्ता के आसपास ही रहेंगे।


रविवार, 18 अक्तूबर 2020

सिन्धु नदी समझौते पर पुनर्विचार की अटकलें

 

ये पोस्ट मेरी 4साल पहले  फेस बुक पर उस समय लिखी जिस समय मोदी सरकार पाकिस्तान का पानी रोकने की बातें कर रही थी। उस समय उरी हमले के कारण पूरे देश में आक्रोश था।


इन दिनों मीडिया में सिंधु नदी समझौते पर पुनर्विचार की चर्चाए जोरो पर है।कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी इस पर गंभीरता से विचार कर रहे है। मीडिया में बताया जा रहा है कि भारत 1960 में पाकिस्तान से हुए सिंधु समझौते को रद्द कर सकता है। जिससे पाकिस्तान का पानी बंद किया जा सकता है। पाक समर्थित आतंकियों द्वारा उरी हमले के बाद देश भक्ति का ज्जबा भारतीय जनता में कुछ ज्यादा ही है। हर कोई चाहता है कि पाकिस्तान को सबक सीखा देना चाहिए। 

ऐसे में ये समाचार आना कि सिंधु जल समझौते पर प्रधानमन्त्री मोदी  पुनर्विचार कर रहे है और पाकिस्तान को सिंधु नदी का पानी  बंद किया जा सकता है। जनता की भावनाओं का फायदा उठाकर वाह वाह मोदी , ऐसा प्रधानमंत्री पहली बार आया है जो अब पाकिस्तान को सबक सीखा सकता है, जैसे जुमले सुने जा सकते है।  मीडिया में इस तरह की वाह वाही लूटकर प्रधानमन्त्री मोदी को महिमा मंडित किया जा रहा है। 

ये ऐसी नीति है कि जिसे इस तरह प्रचारित किया जा रहा है जैसे लोग मोदी को ही नेता मानने लगे ।

 अब आपको थोड़ा सा पीछे ले चलता हूं जिसमे मीडिया में अभी कुछ दिनों पहले ही  उरी के हमलें का बदला लेने का समाचार जोर शोर से प्रचारित किया गया जिसमे पहली बार सर्जिकल स्ट्राइक करने की बात जनता मीडिया के माध्यम से बताई गई। कई नेताओ व समर्थको ने तो  मोदी को 56 इंच के सीने वाला नेता बताते हुए विपक्ष को निशाना बनाया गया। 

जबकिअभी हाल ही में  सुप्रीम कोर्ट में विदेश सचिव ने बताया है कि सर्जिकल स्ट्राइक इससे पहले भी होती रही है लेकिन इस तरह उन्हें कभी प्रचारित नही किया गया। 

पाकिस्तान के साथ जिस सिंधु समझौते को रद्द करने अथवा पुनर्विचार करने की बाते की जा रही है वो भी सर्जिकल स्ट्राइक के बड़बोले पन की तरह की खबरे है जबकि हकीकत यह है कि सिंधु समझौते के तहत भारत अपने हिस्से का पूरा पानी उपयोग ही नही कर रहा। हम अपने हिस्से का पानी उपयोग करने की स्थिति में नही है इसलिए वो पानी पाकिस्तान जा रहा है। 

दरअसल उस पानी का उपयोग करने पर विचार किया जा रहा है जबकि प्रचारित यूं किया जा रहा है जैसे बस भारत पाकिस्तान का पानी रोकने ही वाला है और सिंधु नदी जल समझोते को रद्द करने वाला है। भारत की मीडिया के इस बहुप्रचारित खबरों का असर ये हुआ कि भारत ने तो पाकिस्तान का पानी बंद नही किया लेकिन चीन ने बर्ह्मपुत्र की एक सहायक नदी का पानी बंद कर दिया। 

भारतीय जनता में मोदी का प्रभुत्व जमाने के लिए प्रचारित इस समाचार का अंतराष्ट्रीय समुदाय में ये सन्देश गया कि भारत पाकिस्तान का पानी बंद करने जा रहा है । पाकिस्तान को भी भारत की इन मीडिया ख़बरों को अंतराष्ट्रीय जगत में भुनाने का मौका मिल गया और चीन ने पहला कदम उठा लिया। समझ नही आ रहा कि ये कैसी कूटनीती है जिससे लाभ तो हो न हो नुकशान पहले ही होना शुरू हो गया। 

जबकि सरकार ये जानती है कि सिंधु नदी समझौते में इतना ही किया जा सकता है कि भारत अपने हिस्से के पानी को रोक दे जिससे अंतराष्ट्रीय समझोते का उलघ्घन भी न हो और भारत की जनता की सहानुभूति भी बनी रहे। समझ से परे है कि इस तरह ढिढ़ोरा पिट कर क्यों हम अन्तराष्टिय समुदाय में अपनी विश्वनीयता में कमी ला रहे है। 

पाकिस्तान हमारे मीडिया की खबरें अंतराष्ट्रीय स्तर पर हमारे ही खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है। वो अंतराष्ट्रीय समुदाय को हमारे मीडिया की खबरे दिखाकर ये बता सकता है कि भारत में उसके खिलाफ ऐसी खबरे  दिखाई जा रही है  इन खबरों से वह अंतराष्ट्रीय समुदाय की भावनाए अपनी ओर बटोरने की कोशिश में कामयाब हो सकता है। ये कूटनीति भारतीय जनता को अपनी और आकर्षित करने के लिए तो सही हो सकती है लेकिन अंतराष्ट्रीय जगत में हमारी विश्वशनियता पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाली साबित हो सकती है। जबकि मीडिया में ऐसी खबरे प्रचारित करने का एक मात्र उदेश्य जनता का रुख अपनी और करना मात्र ही  है। क्योकि मुदामुद्दी सरकार जानती है कि पानी रोकने की हद, वही तक उपयोग लाई जा सकती है 

जहा तक कि हमारें हक के पानी को पाकिस्तान जाने से रोकना । वह भी तब तक नही रोका जा सकता जब तक कि हम खुद उस पानी के उपयोग करने लायक नहरो का निर्माण नही कर लेते। क्योंकि हम पाकिस्तान को अपने हिस्से का पानी किसी सदायशता से या दयालुता से नही दे रहे , हकीकत ये है कि हमारे पास उस पानी को उपयोग में लेने लायक साधन ही उपलब्ध नही है इसलिए वो पानी पाकिस्तान जा रहा है और पाकिस्तान ने उस अतिरिक्त पानी के लिए अपनी नहरे विकसित कर ली है। 

उन नहरो में हमारे द्वारा उपयोग में नही लिए जा रहे पानी का जो हिस्सा पाकिस्तान जा रहा है उसका उपयोग 1960 से सिंधु नदी के किनारे बसे पाकिस्तानी गांव या शहर कर रहे है। जब भी  हम उस अतिरिक्त दिए जा रहे पानी को रोकोंगे तो पाकिस्तान अंतराष्ट्रीय जगत में हमारे मीडिया की इन खबरों को दिखाकर ये साबित करने की कोशिश करेगा  कि भारत ने हमारे पानी को रोक दिया है जैसे कि हमें पूर्व में ही आंशका व्यक्त की थी। भारतीय मीडिया की  ये खबरे उस समय पाकिस्तान के लिए अंतराष्ट्रीय समुदाय से सिम्पेथी प्राप्त करने का कारण बन सकती है। क्या इसे सफल दूरगामी कूटनीति कहा जा सकता है ?  इस तरह की नीति कुछ समय के लिए तो वाहवाही दिला सकती है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम हमारे लिए ही घातक सिद्ध हो सकते है। इसलिए अति उत्साह में हमें  अपनी नीतियों का खुलासा समय से पहले नही करना चाहिए। उचित समय और क्रियान्विति के बाद ही जरुरत होने पर ही खुलासा करना चाहिए।

गुरुवार, 24 सितंबर 2020

किसान बिल से किसानों का कितना हित


केंद्र सरकार द्वारा किसानों के लिए तीन बिल पास किए है। सरकार कहती है इससे किसान खुशहाल होंगे जबकि विपक्ष और किसान संगठनों का कहना है कि इससे बड़ी बड़ी कम्पनियां किसानों का शोषण करने लगेगी जबकि सरकार का दावा है कि विपक्ष और किसान संगठन किसानों को भ्रमित कर रहे है।


सरकार का दावा है कि इन तीन बिलों से किसान अपनी फसल देश में कहीं भी बेचने को स्वतंत्र होंगे जबकि विपक्ष का कहना है कि वर्तमान में भी किसान अपनी फसल कहीं भी बेच सकते है लेकिन समस्या है कि वर्तमान का किसान अपनी फसल नजदीक की मण्डी तक  ले जाकर बेच नहीं पाता उसे सपने दिखाए जा रहे है कि को देश में कहीं भी जाकर, जहां उसे अच्छे दाम मिले, बेच सकता है। 


 विपक्ष का प्रश्न है कि किसान को पता कैसे चलेगा कि  उसकी फसल के दाम कहां अच्छे मिलेंगे और अगर उसे पता चल भी जाएं तो वो वहां तक अपनी फसल कैसे लेकर जाएगा इस पर सरकार का कहना है कि किसान आन लाइन ये सभी जानकारी ले सकेगा। किसान संगठनों तथा विपक्ष का इस पर कहना है कि किसान को अगर आन लाइन खरीद बेचान करना आता तो क्या वो बिजनेस नहीं कर लेता ? सरकार का ये तर्क विपक्ष और किसान संगठन को हास्यास्पद लगता है । उनका कहना है कि नेटवर्क की देश में क्या स्थिति है ये किसी से छुपा नहीं है अभी शहरों के घरों में कमरों से नेट के लिए बाहर खुले में आना पड़ता है तो जो किसान सड़कों से दूर जंगल में बैठा है उसे आन लाईन फसल बेचने की सलाह अक्ल के दीवालिएपन जैसा है। सरकार बड़े विकसित देशों की तरह के सपने दिखा रही है जबकि उनके जैसा इंफ्रास्ट्रक्चर तो पहले विकसित करें फिर ऐसी बाते करे तो कुछ अच्छी भी दिखे।


न्यूनतम समर्थन मूल्य को अनिवार्य क्यों नहीं कर रही सरकार?


विपक्ष तथा किसान संगठनों का कहना है कि सरकार इन बिलों को ऐतिहासिक बता रही है तो फिर इनमें न्यूनतम समर्थन मूल्य अनिवार्य क्यों नहीं किया गया। अगर सरकार इन बिलों में ये प्रावधान कर दे कि कोई भी आढ़तिए, कम्पनी आदि किसान से न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम भाव में उसकी फसल नहीं खरीद सकेगा। किसान को हर वस्तु का जो समर्थन मूल्य सरकार निर्धारित करे वो तो देना ही होगा। लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर रही। फिर ये ऐतिहासिक कैसे कहा जा सकता है ?   किसान को उसकी फसल का न्यूनतम मूल्य तक देने में जिस सरकार को सोचना पड़े वो कितनी किसान का भला करने वाली हो सकती है कहने कि जरूरत नहीं। और फिर जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो 2011में वे केंद्र पर किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की सिफारिश करते थे आज जब वे खुद प्रधानमन्त्री है तथा किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य दे सकते है तब इधर उधर के फायदे तो गिना रहे है लेकिन किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का प्रावधान नहीं कर रहे। इससे विपक्ष और किसान संगठनों को प्रधान मंत्री को घेरने का ये अच्छा मुद्दा मिल गया है। 


उनका कहना है कि मोदी किसानों को नहीं अंबानी और अडानी को फायदा पहुंचाने को आमदा है क्योंकि अगर हर वस्तु का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित कर दिया जाए तो अंबानी अडानी और अन्य कम्पनियां उस न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम में फसल खरीद नहीं सकेगी जो इन कम्पनियों के लाभ को कम कर देगी और मोदी ऐसा कर नहीं सकते इसीलिए वे किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने का कोई प्रावधान इन बिलों में नहीं करना चाहते।


कांट्रेक्ट फार्मिंग


सरकार का कहना है कि एक बिल में कांट्रेक्ट फार्मिंग की व्यवस्था से किसान की फसल उनके खेत से ही कम्पनियां उठा लेगी जिससे किसान आढ़तियों जैसे बिचौलियों से मुक्त हो जाएगा। कम्पनियां किसान से उसकी फसल की  दर तय कर कांट्रेक्ट कर लेगी जिससे किसान निश्चित हो सकेगा कि उसे फसल का कांट्रेक्ट के अनुसार मूल्य तो मिलेगा ही। 


दूसरी तरफ विपक्ष और किसान संगठन कुछ और ही कह रहे है उनका कहना है कि इससे तो किसान बड़ी बड़ी कम्पनियों के चंगुल में फंस जाएगा। कम्पनियां एक बार तो किसान से बाजार मूल्य से ज्यादा का कांट्रेक्ट कर लेगी और फिर उनके दाम बढ़ा देगी जिससे किसान को तो उसी कांट्रेक्ट मूल्य पर अपनी फसल कम्पनियों को देनी होगी जबकि बढ़े दामो का लाभ कम्पनियां उठा लेगी इससे किसान इन साहूकार कम्पनियों के चंगुल में फंस जाएगा।


यही नहीं विपक्ष का तो यहां तक कहना है कि सरकार   आवश्यक कमोडिटी एक्ट  में अधिकतम भंडारण की सीमा को समाप्त कर कालाबाजारी के रास्ते खोल रही है एक तरफ किसानों से फसल का कांट्रेक्ट कर उन्हें बाज़ार जाने से रोक दिया जाएगा दूसरी तरफ इन कम्पनियों के लिए चाहे जितनी मात्रा में भंडारण की छूट देकर सरकार उन्हें कालाबाजारी करने की खुली छूट दे रही है क्योंकि कोई सीमा नहीं होने से बड़े बड़े व्यापारी या कम्पनियां माल को रोक लेगी और फिर ऊंचे दामों पर बेचेगी जिससे किसान ही नहीं अाम आदमी भी महगांई से त्रस्त हो जाएगा। बाज़ार पर बड़ी बड़ी अंबानी अडानी जैसी कम्पनियों का बोलबाला हो जाएगा और वे मनमर्जी दाम वसूलेंगे। 


किसान संगठनों तथा विपक्ष का तो यहां तक कहना है कि ये सब बिल किसानों के हित के लिए नहीं बल्कि पूरी तरह योजनाबद्ध तरीके से बड़ी बड़ी कम्पनियों को फायदा दिलाने के लिए लाए गए है ताकि उन्हें परेशानी नहीं हो। वरना एक बिल में न्यूनतम समर्थन मूल्य का तो प्रावधान नहीं किया जाता जबकि व्यापारियों के लिए अधिकतम भंडारण की सीमा भी हटा दी गई है। उनका कहना है कि सामान्य सा अक्ल रखने वाला भी ये जान सकता है कि ये इस क्षेत्र में आने वाली बड़ी बड़ी कम्पनियों को कोई परेशानी न हो इसलिए उनकी हर बाधा को इन तीन बिलों से दूर किया गया है।

शुक्रवार, 12 जून 2020

योग और नमाज समान है फिर ये विरोध कैसा


 योग और नमाज का उदेश्य एक है शरीर को स्वस्थ रखना है ताकि इंसान स्वस्थ रहे । हिंदुओ के ऋषियो ने इसे योग नाम दिया तो मुसलमानो के अल्लाह से इसे नमाज नाम दिया । मुसलमानो के अल्लाह ने अपने अनुयायियो को मजबूत और स्वस्थ रखने के लिए दिन में 5 बार इसे करना जरुरी बताया जबकि हिंदुओं के ऋषियों ने कहा कि जिसे स्वस्थ रहना है वो योग करे अब जिन्होंने इसे अपनाया वे स्वस्थ है और जो स्वस्थ नही है उन्हें योग करना बताया जाता है । हिन्दुओ के ऋषियो तो मुसलमानों को अल्लाह ताला ने स्वस्थ रहने का रास्ता बताया है लेकिन हम ये  समझने के बज़ाय धर्म के नाम पर खोखली बातो में उलझे हुए है इसके मूल मर्म को नही समझकर अपनी ओछी मानसिकता का इज़हार कर रहे है । देखिए किस प्रकार योग और नमाज़ समान है :-

योग और नमाज अदा करने के दौरान होने वाली मूवमेंट शरीर को कुछ इस तरह से चुस्त दुरुस्त रखती है-

1- नियत बांधने का वैज्ञानिक फायदा-जब दायां हाथ बांये हाथ पर रखते हैं, दायीं हथेली के अंगुठे व तर्जनी से बांये हाथ की कलाई के छोर पर दबाव बना कर नाभि के पास उसे रखने से पूरा नर्वस सिस्टम रिलेक्स होता है। प्रेम को बढ़ावा मिलता है और ध्यान लगता है। ये एक्सरसाइज रीढ की हड्डी को रिलेक्स करता है। मसल्स कोआर्डिनेशन को संतुलित करता है।

2- रूकू अर्थात झुकना या अर्द्घशीर्षासन-यह स्थिति कमर की मांसपेशियों को मजबूत करती है। हैमिस्ट्रिंग व काफ मसल्स को मजबूत मिलती है और दर्द से राहत मिलती है। ये क्रिया घुटने के लुब्रिकेंट गूदे को मोबिलाइज कराती है।

 3- खड़े होना दोबारा-इसमें नार्मल सांस ली जाती है यानि कि योगा की भाषा में क्रिया कहा जाता है। मस्तिष्क को आराम मिलता है।

4- सजदा पढ़ते वक्त आधा शीर्षासन। इसके जरिये दिमाग तेज होता है। ब्लड सर्कुलेशन तेज होता है। आंख, नाक व कान की बीमारियों से बचाव, सिर में दर्द और चक्कर आने से राहत मिलती है। पाचन क्रिया दुरुस्त होने से जैसे शारीरिक फायदे।

5- बृजासान जैसी पोजीशन में बैठना- पाचन दुरुस्त करता है। आमतौर पर इसे खाना खाने के बाद किया जाता है, जिससे शरीर अम्लीय क्षार को सही तरीके से छोड़ता है। वायु और कब्ज के विकार को दूर करने में बेहद मददगार।

6- प्रथमा अंगुली को ऊपर उठाना-अंगुली उठाने से ब्लड प्रेशर संतुलित होता है। पूरे शरीर को बड़ी राहत मिलती है।

7- सलाम फेरना या गर्दन को बांयी से दांयी ओर घूमना- सरवाइकल के दर्द के लिये सबसे बेहतर एक्सरसाइज- गर्दन की मांसपेशियां मजबूत होती है तथा टिप्रीजियस मसल्स को मजबूत और सक्रिय करता है। जिससे कंधे की तमाम बीमारियों से मुक्ति मिलती है और उसकी मोबिलिटी को बढ़ाता है.

मंगलवार, 26 मई 2020

कोरोना ने हर ली हर किसी हालत

भारत में पहला कोरोना मरीज 30 जनवरी को केरल में पहचाना गया, जो चीन के बुहान से ही अाया था
उसके  50 दिन बाद यानी 22 मार्च को जनता कर्फ्यू और 25 मार्च से 21 दिन का लाक डाउन किया गया।

30 जनवरी से 22 मार्च तक केंद्र सरकार क्या करती रही?

केरल में पहले कोरोना केस की जानकारी तो केंद्र को हो ही चुकी थी और दूसरी तरफ चीन और अन्य देशों में ये महामारी फैल ही चुकी थी।  तो फिर 50 दिनों में कोरोना से लड़ने के लिए कोई योजना केंद्र सरकार ने क्यों नहीं बनाई? ये सवाल तो जनता पूछ ही सकती है। क्या केन्द्र सरकार को इस अवधि में कोई गाइड लाईन नहीं बना लेनी चाहिए थी ? ये एक सहज ही प्रश्न उभरता है एक सामान्य आदमी के जेहन में।

अगर सरकार सतर्क होती तो इन 50 दिनों में मजदूरों और प्रवासियों  को  जो अपने  घरों को जाना चाहे उन्हें  पहुंचाया जा सकता था। लेकिन सरकार ने लगता है इस 50 दिन की अवधि को यूं ही व्यर्थ गंवाया। उसने इस महामारी को गंभीरता से लिया ही नहीं।

22 मार्च जनता कर्फ्यू लगाने तक भी शायद सरकार इस महामारी से बचने की योजना नहीं बना सकी उसके 3 दिन बाद ही पूरे देश में 21 दिन का लाक डाउन लागू कर दिया गया। यानी 22 मार्च तक भी सरकार ये तय नहीं कर पाई थी उसे कोरोना से कैसे मुकाबला करना है, अगर 22 को तय कर चुकी होती तो  लोगों को अपने अपने घरों में पहुंचने की अपील कर सकती थी, लेकिन सरकार अनिश्चय की स्थिति में थी शायद वो सोच रही थी कि स्थिति नियंत्रण में अा जाएगी, लेकिन स्थिति नियंत्रण में होती दिखाई नहीं दी तो 25 मार्च से 21 दिन का लाक डाउन लगा दिया। इसका तात्पर्य 25 मार्च को 21 दिन का लाक डाउन घोषित करने तक भी सरकार ये सोचती रही कि इन 21 दिनों में हम  इस बीमारी पर नियंत्रण कर लेंगे तब भी  उसने मजदूरों, प्रवासियों को  वहीं रुकने की अपील की अगर सरकार की सोच में आगे और लाक डाउन बढ़ाने की सोच या कोई योजना होती तो वो मजदूरों व प्रवासियों को अपने घरों तक पहुंचने का समय देती और फिर लाक डाउन की घोषणा करती।  लेकिन 25 मार्च से लाक डाउन की घोषणा करने वाली सरकार तब भी आगे के लिए अनभिज्ञ थी। यानी उसे खुद पता नहीं था कि 21 दिन बाद लाक डाउन खोलना भी पड़ेगा या बढ़ाना पड़ेगा।

खैर  जैसे ही 21 दिन पूरे होने को हुए  केंद्र  की  नरेंद्र मोदी सरकार ने  लाक डाउन अगले 19 दिन के लिए  और बढ़ा दिया । अर्थात् केंद्र सरकार 30 जनवरी से 25 मार्च तक के 50 दिनों में, 25 मार्च से 14 अप्रेल तक के 21 दिनों में भी कोरोना महामारी से देश को कैसे लड़ना है  ये तय करने की नीति नहीं बना सकी अगर बना लेती तो मजदूरों और प्रवासियों को अपने गांव पहुंचाने की कोई व्यवस्था कर देती ।

40 दिनों के लाक डाउन के बाद जनता की समझ में अा गया कि सरकार के पास कोई योजना नहीं है और न जाने ये लाक डाउन आगे कब तक चले, इसलिए साधन नहीं होने के बावजूद भी हजारों लाखों मजदूर पैदल ही  निकल पड़े, जिसमें बच्चे, बुजुर्ग, गर्भवती महिलाएं  शामिल थी  ये केंद्र सरकार के प्रति लोगों का पहला अविश्वास था। जो सरकार कि अपीलों के बाद भी अपने घरों को  साधन नहीं होने के बावजूद भी, जाने के लिए  पैदल ही निकल पड़ा था। ये भी पहली अवज्ञा थी सरकार के प्रति कि लोग सरकार के बार बार न निकलने की अपील के बावजूद भी  निकल पड़े। दूसरे लाक डाउन तक तो मजदूरों का धैर्य जवाब दे चुका था

जब तीसरा लाक डाउन 3 मई से शुरू हुआ तो उद्योग जगत को चिंता हुई कि ऐसे कैसे चलेगा उद्योगपतियों को अपने उद्योगों की चिंता सताने लगी।  3 मई तक सरकार ने भी  उद्योगों के लिए भी कोई नीति या रूपरेखा  प्रस्तुत नहीं की थी ।

हां 3 मई के बाद सरकार कहने लगी कि लाक डाउन समाप्ति के बाद उद्योग शुरू होंगे इसलिए मजदूर नहीं निकले लेकिन मजदूर तो  दूसरे लाक डाउन के शुरू होते ही निकल चुके थे और जो कुछ सरकार के प्रति आश्वस्त थे वे  तीसरे लाक डाउन की घोषणा के बाद निकल गए क्योंकि उन्हें लगा कि अब सब अनिश्चित है इसलिए अब अपने घरों को ही जाना उचित है।


54 दिनों की इस अवधि के तीसरे चरण में केंद्र  सरकार ने राज्यों से इस बाबत बात करनी शुरू की क्योंकि सरकार को लगने लगा कि स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है, राज्यों ने भी उद्योग शुरू करने के प्रस्ताव दिए क्योंकि दूसरे चरण की समाप्ति तक राज्यों के राजस्व का भी बुरा हाल हो रहा था, लेकिन तब तक मजदूर निकल चुके थे  और सरकारों द्वारा फैक्ट्रियां चालू करने की अपील भी मजदूरों को पलायन से नहीं रोक सकी, क्योंकि मजदूर का मन उचट गया था वो हर हाल में एक बार अपने घर पहुंचना चाहता था। इसलिए उस पर किसी भी सरकार की अपील का कोई असर नहीं हुआ और वो साधन न होने के बावजूद भी पैदल ही निकल पड़ा। ये सभी राज्य सरकारों की अवज्ञा थी। लोग मार खा खा कर भी आगे बढ़ रहे थे मानो उन्हें मौत दिखाई पड़ रही थी और वे मरना अपने गांव में ही चाहते थे।  ये एक बार फिर  कोई नीति या योजना न होने के कारण हुआ। 

पहली बात तो अगर केंद्र सरकार के पास पहले ही दिन से कोई योजना होती तो मजदूर अपने घर भी हो आते और  फैक्ट्रियों में काम भी पूरी शक्ति से शुरू हो पाता।
नीति के अभाव में 21 दिन तक तो मजदूर  पहले लाक डाउन की समाप्ति तक तो जैसे तैसे टिके रहे, हालांकि  22 मार्च के जनता कर्फ्यू के बाद 25 मार्च से लागू पहले लाक डाउन से ही अधिकांश मजदूर सड़कों पर उतर पड़े थे क्योंकि वे इस असमंजस में थे कि क्या मालूम ये लाक डाउन कब तक चले, जो बचे थे वे दूसरे लाक डाउन की घोषणा के साथ ही अपने घरों को निकल पड़े और जो रुके थे वे तीसरे लाक डाउन की घोषणा के साथ ही अनिश्चय जान पैदल ही निकल पड़े।

 ऐसी स्थिति क्यों बनती ? अगर सरकार पहले ही दिन अपनी रूपरेखा जनता के सामने रख देती इससे ये होता कि मजदूर अपने घरों को भी हो आते और चौथे लाक डाउन तक उद्योग और फैक्ट्रियां भी पूरी क्षमता से  काम शुरू कर देती क्योंकि मजदूरों की होम सिकनेश की पूर्ति भी हो जाती और वे वापस काम पर भी खुशी खुशी लौट आते।

 कोई योजना  सामने न होने से  अब एक तरफ सरकार उद्योगों  को  शुरू करना चाह रही है दूसरी तरफ मजदूर अपने घरों तक पहुंचे ही है या कुछ पहुंचे भी नहीं है रास्ते में है। इससे उद्योगों में मजदूर नहीं मिल रहे और फैक्ट्रियां पूरी क्षमता से काम शुरू नहीं कर पा रही। इससे पिछले  करीब  दो महीने से पटरी से उतरी अर्थ व्यवस्था को गति नहीं मिल पा रही। रिजर्व बैंक का कहना है कि  इस बार स्थिति माइनस में जा सकती है।

अब इसे प्राकृतिक आपदाओं में सरकार का फेलियर कहा जाएं या कुछ और। सरकारें बनाई ही इसीलिए जाती है संकट के समय जनता को कोई तकलीफ़ न होने दे लेकिन यहां तो जनता पिछले दो महीने से पिस रही है न राज्य सरकारें उनके दुख दूर कर पा रही है और न केंद्र सरकार।
 अब बेरोजगारी के कारण जो भुखमरी का दौर आने वाला है वो और भी भयावह हो सकता है। इसके लिए अभी से सरकारों को सर्वव्यापी योजना बना लेनी चाहिए।  अब मध्यम वर्ग में आत्महत्या, सामूहिक आत्महत्या जैसे केस ज्यादा अा सकते है क्योंकि ये वर्ग जो निजी क्षेत्रों में काम करता था , उनका रोजगार चला गया होगा और वे मुफ्त सरकारी योजना के दायरे में आएंगे नहीं तो उनके पास क्या रास्ता बचेगा?  ऐसेमध्यम वर्गीय लोग पिछले  दो महीनों से जो कुछ बचत थी उसे खो चुके है अब उनके मुफलिसी के दिन शुरू हो गए है, सरकार उन्हें कुछ देगी नहीं, मांगना वे चाहेंगे नहीं तो आखिर कितने दिन चलेगी उनकी गाड़ी।  अब आने वाले समय में समाचार पत्रों में ऐसी खबरें आम हो सकती है जिसमें किसी एक व्यक्ति या पूरे परिवार सहित आत्महत्या करने की खबरें हो।

शुक्रवार, 15 मई 2020

दुख हरो हे जनता! अब भी पैदल चल रहे इन लोगों का

दुख हरो हे जनता!
 अब भी पैदल चल रहे इन लोगों का


वाह रे कोरोना! इनके  दुख को 20 लाख करोड़ के पैकेज ने  दूर नहीं किया। ये अब भी पैदल चल रहे है।इनके लिए कब बसें चलेगी, न इनके पास देने को किराया है न खाने को रोटी और न पीने के लिए पानी के पैसे ही।

सरकारें तो कुछ करें या न करें कुछ लेकिन शहरों और गांवों से गुजरते इन लोगों के लिए सेवाभावी संस्थाएं तो जगह जगह इनके लिए सेवा शिविर लगा ही सकती है जैसे रामदेवरा पैदल जाते लोगों के लिए जगह जगह शिविर लगाएं जाते है निशुल्क खाना ,रहना और मालिश के लिए दर्द निवारक तेल। ताकि इनकी अपने गांव जाने की पैदल यात्रा आसान हो सकें।  मानवता की इससे बड़ी सेवा कोई हो ही नहीं सकती। सरकारों के भरोसे तो ये पलायन रुकता दिखता नहीं। गांव गांव के सेवाभावी लोगों को ही आगे आना होगा उन्हें अपने गांव की सड़कों से गुजरते ऐसे लोगों के लिए गांव के बाहर ही शिविर लगा कर इनकी सहायता करने को, ताकि ये पैदल चलते लोग वहां रुक सकें कुछ देर विश्राम कर सकें, भोजन कर सकें और जब थकान दूर हो जाएं तो वापस अपनी इस यात्रा पर आगे बढ़ सकें।

परिवारों के साथ जा रहे लोगों को एक ही टेंट में तो एकल लोगों को सोशल दिस्टेंगिंग से ठहराए। उनके गांव की सड़क पर पहुंचते ही सेनेताइज करें फिर उन्हें टेंट में भेजें उनके लिए खाने की व्यवस्था हो आराम करने लिए  बिस्तर चद्दरों सहित। जितने दिन वो रुकना चाहे रुके और जब वे चले जाएं तो उस स्थान को पहले सैनेताईज करें फिर उनके उपयोग में लिए गए बिस्तर आदि को 2-3 दिनों तक धूप में रखें फिर उनका उपयोग करें।

ये कोई मुश्किल नहीं बस इच्छाशक्ति की जरूरत है। गांव  में रहने वाले लोगों से ज्यादा तो पलायन वाले लोग नहीं है इसलिए गांव के लोग अगर चाहे तो इन पैदल चलते लोगों का दुख कुछ कम कर सकते है।

सरकारों के वश का नहीं है ये सब जनता अगर चाहे तो कर सकती है। ये पैदल चलते लोग वे है जिनके पास बसों और रेलों का किराया देने की सामर्थ्य नहीं है, अगर होती तो ये श्रमिक ट्रेनों में न अा जाते, उन स्पेशल ट्रेनों में नहीं अा जाते जिनमें राजधानी का किराया लगता है। इनकी मज़बूरी और बेबसी को समझे और अगर आपके गांव की सड़क से ऐसे लोग निकलते दिखे तो उनकी सहायता करें।
देखिए इनके पैरों की हालत नीचे के फोटो में क्या इन्हें कोई शौक है इस तरह पैदल चलने का।  कोई रास्ता नहीं दिखा तो ये चल पड़े है पैदल ही। क्या मानवता , हमारा धर्म नहीं कहता कि ऐसे लोगों की सहायता को हम आगे आएं।

ऐसे लोगों की मदद ही सच्ची सेवा है। उन गांवों के लोगों को भगवान ने सेवा का मौका दिया है जिन गांवों की सड़कों से ये लोग गुजर रहे है। इनके दिलों से निकली सच्ची दुआएं ही आपके जन्म जन्मांतर को सुखमय बना सकती है। इनकी सेवा भगवान की सेवा से भी बढ़कर होगी।

बुधवार, 13 मई 2020

ऐसे बनेगा लोकल ही वोकल

लोकल को बनाना है वोकल



प्रधानमन्त्री जी ने लोकल को वोकल बनाने की जो बात कही है उस पर लोकल लोगों को और लोकल उत्पादन करने वाले उद्योगपतियों दोनों को चिंतन करने की जरूरत है। लोकल चीज अगर अच्छी क्वालिटी की मिलेगी तो लोग उसे खरीदने में प्राथमिकता देंगे और अगर उसकी क्वालिटी घटिया होगी तो लोग दूसरी खरीदेंगे।  इसलिए लोकल को वोकल बनाने के लिए  क्वालिटी का जो ध्यान रखेगा वो अपने उत्पाद को वोकल बना सकेगा, और जो क्वालिटी का ध्यान नहीं रखेंगे उनके लिए चाहे प्रधानमन्त्री कहे या कोई भी, जनता उसे स्वीकार नहीं करेगी।
इसलिए लोकल को अगर वोकल बनाना है तो क्वालिटी का ख्याल रखना होगा। चीनी आइटम की तरह नहीं कि, सस्ती तो हो लेकिन क्वालिटी न हो। बाज़ार में लंबे समय तक टिकने के लिए जरूरी है कि आप अपनी क्वालिटी मेंटेन रखें। निश्चिंत मानिए अगर आप क्वालिटी बनाए रखेंगे तो भी आपकी लोकल होने की वजह से अन्य चीजों से आपकी दरें,बड़ी कम्पनियों से कम ही होगी। और कुछ नहीं तो जो ट्रांसपोर्टेशन का खर्चा है वो तो कम होगा ही, ऐसे में बड़ी बड़ी कम्पनियों कि क्वालिटी मेंटेन रखते हुए आप लोकल लोगों को उसी क्वालिटी की वस्तुएं सस्ती दे सकते है, और जब अच्छी क्वालिटी की कोई चीज सस्ती मिलेगी तो कोई क्यों दूसरी या विदेशी चीज खरीदेगा।

बस तय लोकल को वोकल बनाने का करना है तभी प्रधानमन्त्री की बात बनेगी अन्यथा भाषण है और भाषण तक ही रह जाएगी लोकल को वोकल बनाने की बात।